छत्तीसगढबस्तर

बस्तर के गौरवशाली लोहार, आखिर क्यों हुए लाचार

डॉ राजाराम त्रिपाठी,
(ट्राईबल रिसर्च एंड वेलफेयर फाउंडेशन)

*विश्व में सबसे पहले बैलाडीला के पत्थरों से बस्तर के लोहारों ने ही बनाया था लोहा*

बस्तर,न्यूज़ धमाका :- लोहार बस्तर की सबसे महत्वपूर्ण जनजाति रही है। सदियों से लोहार बस्तर के आदिवासी गांवों में आदिवासियों के साथ मिलजुल कर जीवनयापन करते रहे हैं। बस्तर के लोहार जाति के कुल गोत्र बस्तर की प्राचीन जनजातीय समुदायों की भांति ही हैं। इनके जन्म से लेकर विवाह तीज त्यौहार नृत्य उत्सव तथा मृत्यु की सारी रस्में स्थानीय आदिवासी समुदायों की तरह ही हैं। आजादी के पूर्व बस्तर के गांव में रहने वाले लोहारों को अन्य आदिवासी समुदाय की भांति ही जनजातीय समुदाय ही माना जाता रहा है।

आजादी के बाद बिना समुचित सर्वे के देश के अन्य भागों के लोहारों की भांति ही इनको भी पिछड़े वर्ग में शामिल कर लिया गया जिसके कारण अति पिछड़े क्षेत्र बस्तर के गांवों में सदियों सदियों से बसे ये सारे के सारे लोहार परिवार हाशिए पर आ गए। पिछड़े दुर्गम जंगली गांवों में रहने वाली यह बस्तर की मूल निवासी जनजाति आदिवासियों को मिलने वाले सारी सुख सुविधाओं तथा आरक्षण के अति आवश्यक सहारे से महरूम हो गई। 2016 में बिहार में गलती को सुधारते हुए लोहारों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया था।

किंतु दुर्भाग्य ने अभी भी उनका पीछा नहीं छोड़ा है, विगत 21 फरवरी 2022 को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश (डब्ल्यू पीसीसी संख्या 1052:2021 सुनील कुमार राय एवं अन्य बनाम राज्य सरकार एवं अन्य) के तहत लोहारों को फिर से अनुसूचित जनजाति वर्ग से निकाल बाहर करते हुए , इन्हें पिछड़े वर्ग में शामिल कर दिया गया। बस्तर के लोहारों का मामला देश के अन्य क्षेत्रों के लोहार समुदाय से नितांत अलग है। बस्तर के लोहार समुदाय का यदि निष्पक्ष स्वतंत्र आर्थिक सामाजिक सर्वेक्षण व एतिहासिक विवेचन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह समुदाय सदैव से यहां की मूल जनजातीय समुदाय का ही एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। देश की आजादी के बाद के 70 सालों से इनके साथ लगातार जारी संवैधानिक पक्षपात के कारण यह जनजातीय समुदाय आज अंचल का सबसे ज्यादा वंचित, गरीब और सर्वहारा वर्ग हो गया है।

मध्य प्रदेश से विलग होकर छत्तीसगढ़ प्रदेश बनने के बाद लगातार उपेक्षित बस्तर की बरसों से बलपूर्वक दबाई गई आकांक्षाएं भी जाग उठी थीं। लोहार समुदाय को भी यह उम्मीद जगी थी कि बस्तर के विशिष्ट लोहार समुदाय के साथ अब तक होने वाला पक्षपात शायद बंद होगा तथा इन्हें इनका वास्तविक दर्जा दिलाया जाएगा किंतु यह दुर्भाग्य ही है कि राजधानी में बैठने वाले नेतागण और उच्चाधिकारी अभी भी बस्तर के अंदरूनी हालातों से भलीभांति परिचित नहीं है। और जो महानुभाव परिचित भी हैं उन्हें कुर्सी पाने के बाद अपना ही घर भरने और अपनी कुर्सी बचाये रखने से फुर्सत नहीं है, तो यक्ष प्रश्न यह है कि इन वंचितों के बारे में कौन सोचेगा? आज भी बस्तर की योजनाएं एसी वाले बंद कमरों में ही बनती हैं। बस्तर के लोहारों का दुख दर्द न पुरानी राजधानी तक पहुंच पाया था, और नाही इसे नई राजधानी का रास्ता पता है।


विश्व के सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता के लोहे का सबसे बड़ा भंडार बैलाडीला बस्तर में ही है। बस्तर का जितना लोहा पिछले पचास सालों में जापान गया है, अगर उसकी खरी कीमत बस्तर वासियों में बांट दी जाए तो बस्तर का हर आदिवासी परिवार अरब के शेखों की तरह जीवन जी सकता है। बस्तर के लोहारों ने ही यहां की पत्थरों में पाये जाने वाले काले सोने की सर्वप्रथम पहचान की थी। बस्तर के लोहार यहां के पहाड़ों से लोहा पत्थर (लौह अयस्क) लाकर उसे पिघलाकर उससे उत्कृष्ट क्वालिटी का लोहा बनाने और उस लोहे से तरह तरह के अस्त्र-शस्त्र, कृषि औजार, दैनिक जीवनोपयोगी वस्तुएं, विभिन्न प्रकार की खूबसूरत और टिकाऊ कलाकृतियां, आभूषण बनाने के लिए सदियों से जाने जाते रहे हैं।

बस्तर की गांवों में सोनार और बढ़ाशई नहीं पाए जाते थे इन दोनों के कार्यों को भी लोहार समुदाय के द्वारा ही किया जाता था। यह समुदाय अपनी हाड़तोड़ मेहनत और पुश्तैनी हुनर से गांव के किसानों और अन्य सभी वर्गों की से सेवा में पूरे साल भर लगा रहता था, और गांव के किसानों के द्वारा अनाजों के रूप में दिये जाने वाली मजदूरी के भरोसे जिंदा रहता था। इसलिए यह समुदाय खेती के कार्य से हमेशा दूर रहा है। नतीजा यह हुआ कि इस समुदाय के पास खेती योग्य भूमि भी नहीं है।
समय के साथ ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में भी कई बदलाव आए। लगातार घाटे घाटा उठाने के कारण किसान खेती की ओर से विमुख होने लगे,और रोजगार के लिए शहर भागने लगे।

वर्तमान में नई तकनीकों से कारखानों में तैयार सस्ते लोहे के तरह तरह के औजार, बर्तन, आभूषण बस्तर के साप्ताहिक बाजारों में पहुंच गए और इनका पुश्तैनी काम धंधा पूरी तरह से ठप्प कर दिया। अब बस्तर के गांवों में लोहार के हथौड़े की आवाजें नहीं गूंजती। एक समय अपनी लौहशिल्प कला, परंपरागत इंजीनियरिंग तथा बहु उपयोगी परंपरागत सस्ती तकनीकों के जरिए पूरे विश्व में अपना लोहा मनवाने वाला लोहार संप्रदाय समुदाय, आज केवल मजदूरी करने को मजबूर है। वर्ष भर मजदूरी का काम मिलने की भी कोई गारंटी नहीं है इसलिए आज इनके ज्यादातर परिवार भुखमरी के शिकार हैं।

बस्तर के आदिवासी गांवों में लोहार समुदाय जनजातियों के जन्म से लेकर मृत्यु तक हर कार्य,हर उत्सव तथा प्रत्येक सामाजिक आर्थिक कार्य में अनिवार्य रूप से शामिल होता है। नवजात शिशु के जन्मते ही सर्वप्रथम शिशु की गर्भनाल को काटने के लिए स्थानीय लोहारों के द्वारा ही बनाए गए तीर अथवा पैनी छुरी का प्रयोग किया जाता है जो प्रायः लोहार परिवार की बुजुर्ग महिला के द्वारा संपन्न होता है। पूरे जीवन भर आदिवासी ग्राम्य देवी देवताओं की पूजा आराधना हेतु नगाड़े ,मृदंग छोटा नगाड़ा जिसे तुड़बुड़ी कहा जाता है , शहनाई नुमा मोहरी बाजा आदि सभी का निर्माण लोहार वर्ग ही करता आया है। जनजातीय समुदाय के देवी देवताओं के आभूषण , देवताओं की विशिष्ट पहचान वाले झंडे , छत्र ,उनके हाथों को में धारण करने वाले तरह तरह के अस्त्र-शस्त्र आदि का निर्माण इनके द्वारा ही किया जाता रहा है।

इसके अतिरिक्त हर गांव में स्थित ग्राम देवी के मंदिर, जिसे देवगुड़ी कहा जाता है वहां पर देवी देवताओं के बैठने के लिए कांटेदार कुर्सी, झूलने के लिए कांटेदार झूला देवताओं के द्वारा स्वयं को सच्चा तथा शक्तिशाली साबित करने हेतु, लोहे की कांटेदार चाबुक से खुद पर ही वार करने हेतु कांटेदार सांकल का निर्माण भी इनके द्वारा ही किया जाता रहा है। जनजातीय समुदायों में मन्नतें पूरी होने पर ग्राम देवताओं को पशु पक्षी आदि के बलि देने की परंपरा रही है।

बलि देने हेतु विभिन्न आकार प्रकार के अलग-अलग औजार जैसे की छुरी जिसे कडरी कहा जाता है। इसके अलावा दाव, गागड़ी, खांडा के अलावा कई तरह के तीर,टंगिया ( कुल्हाड़ी), फरसा, भाला, आदि कई तरह के औजार भी इनके द्वारा बनाए जाते रहे हैं। हालांकि अब धीरे धीरे बस्तर में भी बलि प्रथा काफी हद तक कम हो गई है।
अमूस यानी कि हरियाली अमावस्या आदिवासी समुदाय के सबसे प्रमुख त्योहारों में से एक है इस दरमियान प्रत्येक घर में लोहार के द्वारा जाकर ग्राम में देवी के मंत्रों के साथ हर दरवाजे पर लोहे की कीलें घर परिवार की रक्षा हेतु गाड़े जाते हैं। यह मान्यता है कि लोहारों द्वारा गाड़े गए इन कीलों के रक्षा कवच से बुरी आत्माएं बीमारियां, टोने-टोटके, जंतर मंतर, जादू टोने से घर परिवार पूरे कुटुंब तथा पालतू मवेशियों तक की रक्षा होती है।

बस्तर के जनजातीयोंके सभी तीज त्यौहार, पूजा पाठ, मेला-मड़ाई, जात्रा, शादी विवाह नृत्य संगीत, बिना लोहार समुदाय के सक्रिय योगदान और भागीदारी के संपन्न ही नहीं हो सकते। हांलांकि वर्तमान में आधुनिकता की तेज रफ्तार दौड़ के साथ बस्तर के जनजातीय समुदायों वाले गांव भी धीरे-धीरे कदमताल करने लगे हैं। वैश्विक बाजार की बदनाम ताकतें धीरे धीरे बस्तर के आदिवासी ग्राम्य सभ्यता को भी अपने अजगरी जकड़ पास में कस रही हैं, और निगल रही हैं। बस्तर में भी अब धीरे-धीरे यह रस्में, रीति रिवाज कमजोर पड़ रहे हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग से दूर बस्तर के धुर अंदरूनी गांवों में आज भी इन रस्मों और रीति-रिवाजों का कड़ाई से पालन किया जाता है।


बस्तर के इन आदिवासी गांवों में कोई भी जनजातीय सामाजिक रीति रिवाजों के कार्य, सभी उत्सव , समस्त कृषि कार्य तथा सभी तरह के त्यौहार बिना लोहार समुदाय के संपन्न नहीं हो सकता।


बस्तर के ये जीवट लोहार जबरदस्त आक्रामक उपद्रवी देवों को अपनी झाबा खूटी यानी कि एकमुश्त चार लोहे की खूंटियों से कीलित कर पूरे गांव की रक्षा तो कर लेते हैं, पर ये बेचारे अपने समुदाय को वोट की राजनीति के चलते अपने साथ हुए संवैधानिक पक्षपात से नहीं बचा पाए, और हासिए में चले गए हैं और रसातल को जा रहे हैं। यही हाल रहा तो धीरे-धीरे यह समुदाय ही विलुप्त हो जाएगा, और इसके साथ ही विलुप्त हो जाएंगी वो तरह तरह की अनमोल परंपरागत तकनीकें और पूरे विश्व को चमत्कृत करने वाली वो अनूठी लौहशिल्प कला, जो कभी बस्तर ही नहीं पूरे देश के समृद्ध संस्कृति और प्रचीन कला की पहचान मानी जाती थी।

अब वक्त आ गया है कि सरकार जल्द से जल्द अपनी गलती सुधारते हुए, इस समुदाय के साथ हुए अन्याय को समाप्त कर उन्हें अनुसूचित जनजाति का पहले का दर्जा बहाल करे, इनके उन्नयन हेतु ईमानदारी से प्रयास करें और इस गौरवशाली समुदाय को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की पुरजोर कोशिश की जाए।

CG SADHNA PLUS NEWS

Chhattisgarh News Dhamaka Team

स्टेट हेेड छत्तीसगढ साधना प्लस न्यूज ( टाटा प्ले 1138 पर ) , चीफ एडिटर - छत्तीसगढ़ न्यूज़ धमाका // प्रदेश उपाध्यक्ष, छग जर्नलिस्ट वेलफेयर यूनियन छत्तीसगढ // जिला उपाध्यक्ष प्रेस क्लब कोंडागांव ; हरिभूमि ब्यूरो चीफ जिला कोंडागांव // 18 सालो से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय। विश्वसनीय, सृजनात्मक व सकारात्मक पत्रकारिता में विशेष रूचि। कृषि, वन, शिक्षा; जन जागरूकता के क्षेत्र की खबरों को हमेशा प्राथमिकता। जनहित के समाचारों के लिये तत्परता व् समर्पण// जरूरतमंद अनजाने की भी मदद कर देना पहली प्राथमिकता // हमारे YOUTUBE चैनल से भी जुड़ें CG SADHNA PLUS NEW

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!