- छत्तीसगढ़ के नेताओं को शायद यह नहीं पता कि भारत गांवों में बसता है। अगर पता होता तो शायद छत्तीसगढ़ के गांवों की हालत ऐसी नहीं होती। देश अगर तरक्की कर रहा है, तो उस तरक्की में ये गांव अपनी जगह तलाश रहे हैं। ऐसे गिनती के एक-दो गांवों के बारे में सवाल भी हो, तो सरकारी नुमाइंदे उन्हें 'अपवाद' कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में जशपुर, कोरबा, कवर्धा, बीजापुर समेत अनेक जिलों में कई गांव हैं। बहरहाल, छत्तीसगढ़ के ग्राम और ग्रामीणों को विकास से जोड़ने का दावा करने वाले 'पंचायत एवं ग्रामीण विकास' विभाग के मंत्री टीएस सिंहदेव के गृह संभाग सरगुजा के ही एक गांव की तस्वीर देख लीजिए, आपको अंदाजा हो जाएगा कि 'गांधी के सपनों का भारत' कैसे बनाया जा रहा है।
बलरामपुर न्यूज़ धमाका /// एक गांव ऐसा भी है, जहां आजादी के सात दशक पूरे होने के बावजूद आज तक न तो बिजली है, न पीने के लिए शुद्ध पानी है, न आवागमन के लिए सड़क। विकास के तमाम दावे करने वाले जनप्रतिनिधि यहां वोट मांगने जब-जब पहुंचते हैं, वे वोट की अपील के साथ विकास का आश्वासन भी देते हैं, लेकिन ऐसा हर चुनाव में होता है। हर बार चुनाव में चेहरे जरूर बदल जाते हैं, पर उस गांव की तस्वीर नहीं बदली।
उस गांव के ग्रामीणों से मिलने वाले वोटों की बदौलत गाड़ी, बंगला, पॉवर, ग्लैमर बटोरने वाले जनप्रतिनिधि चुनाव के बाद गधे की सिंग की तरह गायब होते हैं, तो अगली बार चुनाव के समय ही दिखते हैं। सरकारी की मोटी तनख्वाह पर इस इलाके में तैनात अफसर दफ्तरों में हाजिरी तो लगा रहे हैं, लेकिन जमीनी समस्याओं से उनका सरोकार सिर्फ इतना होता है कि वे उस पर अपने सीनियर्स को जवाब दें सकें।
इन समस्याओं को दूर करने के प्रति ‘जिम्मेदारी’ जैसी कोई बात नहीं दिखती। जनप्रतिनिधियों और अफसरों में लापरवाही की सीमा देखिए कि वे ये भी भूल गए कि उस गांव में रहने वाले ग्रामीण कोई और नहीं, बल्कि राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र माने जाने वाले कोरवा आदिवासी हैं। गांव का नाम है देवसरा-खुर्द गटीडांड और ग्राम पंचायत का नाम है परेन्वा। शंकरगढ़ विकासखंड में यह गांव स्थित है। गांव में पेयजल, सड़क, बिजली आदि बूनियादी सुविधाओं की कमी को लेकर यहां के ग्रामीण और पंच, सरपंच कहते हैं कि यह आज की नहीं, बल्कि पिछले कितने सालों की समस्या है, वे खुद नहीं जानते।
नौजवान कहते हैं कि हम अपने जन्म से यही हालात देखते बड़े हुए हैं, वृद्धजन भी यही कहते हैं कि वे जब से पैदा हुए हैं गांव को ऐसे ही देख रहे हैं, जहां ढोढ़ी से गंदा पानी छानकर भर लेते हैं, उसी से अपनी प्यास बूझाते हैं। पुराने जमाने के जो ढिबरी और लालटेन आम शहरियों के लिए अब इतिहास की वस्तुएं हो चुकी हैं, वही आज भी इस गांव में रात के अंधेरे में मामूली उजाले के मुख्य साधन हैं। बिजली तो गांव में पहुंची ही नहीं। यहां पहुंचने के लिए सड़क तो है ही नहीं। नुकीले पत्थर, गिट्टी, मुरूम और गड्ढों वाली जिस पगडंडी का इस्तेमाल आवागमन के लिए किया जाता है, उसकी स्थिति भी सिर्फ पैदल चलने लायक है। बारिश के दिनों में पैदल चलना भी मुमकिन नहीं।
गांव के सरपंच और ग्रामीण कहते हैं कि ऐसा भी नहीं है कि ग्रामीणों ने इन समस्याओं से मुक्ति के लिए गुहार न लगाई हो। वे कहते हैं कि अर्जियां, आवेदन, जन-दर्शन, ज्ञापन आदि तमाम उपाय सैकड़ों किए गए हैं, लेकिन सरकार ने उन पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। ध्यान दिया होता, तो ये नौबत आती ही नहीं। इस इलाके के अफसर समस्याओं से इनकार नहीं करते, लेकिन वे सिर्फ इतना बताते हैं कि वे अपना काम कितना कर रहे हैं। सरकारी सुविधाएं उस गांव तक क्यों नहीं पहुंच पा रही है, इसकी जिम्मेदारी लेने वाला, अथवा इस पर दिलचस्पी लेने वाला कोई नहीं दिख रहा है।
शंकरगढ़ के एसडीएम प्रवेश पैकरा मानते हैं कि उस गांव में समस्याएं हैं, लेकिन वे यह भी कहते हैं उन्हें दूर करने के प्रयास जारी हैं। आजादी दशकों बाद जब तमाम सरकारें आईं, चली गईं, इन कोरवा आदिवासियों के चेहरे से मायूसी क्यों नहीं गई, इसका जवाब देने वाला कोई नहीं है
सौजन्य inh न्यूज़